26-10-71 ओम
शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
कर्म का आधार
वृत्ति
आज प्रवृत्ति
में रहने वाले
पाण्डव सेना की
भट्ठी
का
आरम्भ है। अपने
को पाण्डव समझते
हो? निरन्तर अपना
पाण्डव-स्वरूप
स्मृति में रहता
है? वा कभी अपने
को पाण्डव समझते
हो और कभी प्रवृत्ति
वाले समझते
हो? निरन्तर
अपने को पाण्डव
अर्थात् पण्डे
समझने से सदा यात्रा
और मांज़िल
के सिवाय
और कोई स्मृति
रह सकती है? अगर
कोई स्मृति रहती
है तो उसका कारण
कि अपना पाण्डव-स्वरूप
भूल जाते हो। स्मृति
अर्थात् वृत्ति
बदलने से कर्म
भी बदल जाता है।
कर्म का आधार वृत्ति
है। प्रवृत्ति
वृत्ति से ही पवित्र,
अपवित्र बनती है।
इसलिए पाण्डव सेना
वृत्ति को सदा
एक बाप के साथ लगाते
रहें तो वृत्ति
से अपनी उन्नति
में वृद्धि कर
सकते हो। वृद्धि
का कारण वृत्ति
है। वृत्ति में
क्या करना है? अगर
वृत्ति ऊंची है
तो प्रवृत्ति ऊंची
रहेगी। तो वृत्ति
में क्या रखें
जिससे सहज वृद्धि
हो जाए? वृत्ति
में सदा यही
याद रहे
कि ‘एक बाप दूसरा
न कोई।’ एक ही बाप
से सर्व सम्बन्ध,
सर्व प्राप्ति
होती हैं। यह सदा
वृत्ति में रहने
से दृष्टि में
आत्मिक-स्वरूप
अर्थात् भाई-भाई
की दृष्टि सदा
रहेगी। जब एक बाप
से सर्व सम्बन्ध
की प्राप्ति की
विस्मृति होती
है तब ही वृत्ति
चंचल होती है।
जब एक बाप के सिवाय
दूसरा कोई सम्बन्ध
ही नहीं, तो वृत्ति
चंचल क्यों होगी।
ऊंची वृत्ति होने
से चंचल वृत्ति
हो नहीं सकती।
वृत्ति को श्रेष्ठ
बना दो तो प्रवृत्ति
आटोमेटिकली श्रेष्ठ
होगी। इसलिए अपनी
वृत्ति को श्रेष्ठ
बनाओ तो यही प्रवृत्ति
प्रगति का कारण
बन जायेगी और प्रगति
से गति-सद्गति
को सहज ही पा सकेंगे,
फिर यह प्रवृत्ति
गिरने का कारण
नहीं होगी, तो प्रवृत्ति
मार्ग में रहने
वालों को प्रगति
के लिए वृत्ति
को ठीक करना है।
फिर यह वृत्ति
के चंचलता की कम्पलेन
कम्पलीट हो जायेगी।
स्मृति वा वृत्ति
में सदा अपना निर्वाण
धाम और निर्वाण
स्थिति रहनी चाहिए
और चरित्र में
निर्मान।
तो निर्माण, निर्मान
और निर्वाण -- यह
तीनों ही स्मृति
रहने से चरित्र,
कर्त्तव्य
और स्थिति - तीनों
ही इस स्मृति से
समर्थवान हो जाती
हैं अर्थात् स्मृति
में
समर्थी
आ जाती
है। जहाँ
समर्थी
है वहाँ
तीनों में विस्मृति
नहीं आ सकती। तो
विस्मृति को मिटाने
के लिए यह समर्थ
स्मृति रखो। यह
तो बहुत सहज है
ना। अगर चरित्र
में निर्माणता
है तो कर्त्तव्य
भी विश्व-निर्माण
का आटोमेटिकली
चलेगा। निर्माणता
अर्थात् निरहंकारी।
तो निर्माणता में
देह का अहंकार
स्वत: ही खत्म हो
जाता है। ऐसे निर्माण
स्थिति में रहने
वाला सदा निर्वाण
स्थिति में स्थित
होते हुए भी वाणी
में आयेंगे तो
वाणी भी यथार्थ
और पावरफुल अर्थात्
शक्तिशाली होगी।
कोई भी चीज़
जितनी
अधिक शक्ति- शाली
होती है उतनी क्वान्टिटी
कम होती है लेकिन
क्वालिटीज अधिक
होती हैं। ऐसे
ही जब निर्माण
स्थिति में स्थित
होकर वाणी में
आयेंगे तो वाणी
में भी शब्द कम
लेकिन शक्तिशाली
ज्यादा होंगे।
अभी विस्तार ज्यादा
करना पड़ता है, लेकिन
जैसे-जैसे शक्तिशाली
स्थिति बनाते जायेंगे
तो आपके एक शब्द
में हजारों शब्दों
का रहस्य समया
हुआ होगा, जिससे
व्यर्थ वाणी आटोमेटि-
कली समाप्त हो
जायेगी। जैसे सारे
ज्ञान का सार छोटे
से बैज में समाया
हुआ है, पूरा ही
सागर इस छोटे से
चित्र में सार
रूप में समाया
हुआ है, ऐसे आप लोगों
का एक शब्द भी सर्व
ज्ञान के राजों
से भरा हुआ निकलेगा।
तो ऐसी वाणी में
भी शक्ति भरनी
है। जब वृत्ति
और वाणी पावरफुल
हो जायेंगे तो
कर्म भी सदा यथार्थ
और शक्तिशाली होंगे।
यहाँ बैटरी को
चार्ज करने आये
हो, तो बैटरी को
चार्ज करने के
लिए सदा अपने को
विश्व-निर्माण
करने के इन्चार्ज
समझो। अगर सदा
अपने को इस सृष्टि
के कर्त्तव्य के
इन्चार्ज समझेंगे
तो सदा बैटरी चार्ज
रहेगी। इस चार्ज
से अपने को विस्मृत
करते हो तभी बैटरी
डिस्चार्ज़
होती
है। इसलिए सदा
अपने इस कर्त्तव्य
में अपने को इन्चार्ज
समझो और फिर अपनी
बैटरी चार्ज का
बार-बार चार्ट
चेक करो, तो कभी
भी संकल्प वा कर्म
में वा आत्मा की
स्थिति में डिस्चार्ज
नहीं होंगे। फिर
यह कम्पलेन कम्पलीट
हो जायेगी। यह
भी कम्पलेन है
ना। सभी में ज्यादा
यह कम्पलेन है।
इसका कारण यह है
- अपने को सदा ऐसे
श्रेष्ठ कर्म के
इन्चार्ज नहीं
समझते हो। ‘‘जो कर्म
मैं करूंगा मुझे
देख अन्य करेंगे’’,
- यह तो है ही लेकिन
यह सलोगन और गुह्य
रूप से
कैसे
धारण करना है, वह
समझते हो? इस पाण्डवों
की भट्ठी के लिए
यह गुह्य
सलोगन
आवश्यक है। वह
कौनसा? जैसे यह
सलोगन सुनाया कि
‘‘जो कर्म मैं करूंगा
मुझे देख और करेंगे।’’
वैसे ही जो मुझ
निमित्त बने हुए
आत्मा की वृत्ति
होगी वैसा वायुमण्डल
बनेगा। जैसी मेरी
वृत्ति वैसा वायुमण्डल।
तो वायुमण्डल को
परिवर्तन में लाने
वाली वृत्ति है।
कर्म से वृत्ति
सूक्ष्म है। अभी
सिर्फ कर्म के
ऊपर ध्यान नहीं
देना है लेकिन
वृत्ति से वायुमण्डल
को बनाने का इन्चार्ज
भी मैं हूँ। वायुमण्डल
को सतोप्रधान कौन
बनायेगा? आप सभी
निमित्त हो ना।
अगर यह सलोगन सदा
स्मृति में रहे
तो बताओ फिर वृत्ति
चंचल
होगी? बच्चा भी
चंचलता कब करता
है? जब
फ्री
होगा।
तो वृत्ति भी चंचल
तब होती है जब वृत्ति
में इतने बड़े कार्य
की स्मृति कम है।
अगर कोई अति
चंचल
बच्चा बिज़ी
होते
भी चंचलता नहीं
छोड़ता है तो उसका
और क्या साधन होता
है? यही कम्पलेन
अभी तक भी है कि
वृत्ति को याद
में वा ज्ञान में
बिज़ी
रखने की कोशिश
भी करते हैं, फिर
भी चंचल हो जाती
है। तो ऐसे को क्या
करना है? उसके लिए
जैसे चंचल बच्चे
को किसी न किसी
प्रकार से कोई
न कोई बन्धन में
बाँधने का प्रयत्न
किया जाता है - चाहे
स्थूल बन्धन,
चाहे
वाणी द्वारा कोई
न कोई प्राप्ति
का आधार देकर उनको
अपने स्नेह में
बांधा जाता है।
ऐसे बुद्धि को
वा संकल्प को भी
कोई न कोई बन्धनों
में बाँधना पड़ेगा।
वह बन्धन कौनसा?
जहाँ भी बुद्धि
जाती है उसको पहले
चेक करो।
चेक करने
के बाद जहाँ संकल्प
वा वृत्ति जाती
है उसी लौकिक वा
देहधारी वस्तु
को परिवर्तन करते
हुए, इन देहधारी
वा लौकिक वस्तु
की तुलना में अलौकिक,
अविनाशी वस्तु
स्मृति में लाओ।
जैसे कोई देहधारी
में वृत्ति चंचल
होती है, जिस सम्बन्ध
में चंचल होती
है वही सम्बन्ध
का प्रैक्टिकल
अनुभव अविनाशी
बाप द्वारा करो।
मानो प्रवृत्ति
के सम्बन्ध में
वृत्ति चंचल होती
है, इसी सम्बन्ध
का अलौकिक अनुभव
सर्व सम्बन्ध निभाने
वाले बाप से प्राप्त
करो, तो जब प्राप्ति
की पूर्ति हो जायेगी
तो फिर चंचलता
की निवृत्ति हो
जायेगी। समझा?
अगर सर्व सम्बन्ध
और सर्व प्राप्ति
एक बाप द्वारा
हो जाएं तो अन्य
तरफ बुद्धि चंचल
होगी? तो सर्व सम्बन्धों
से एक ही बड़े ते
बड़ा बन्धन यही
है कि अपनी चंचल
वृत्ति को सर्व
सम्बन्धों के बन्धन
में एक बाप के साथ
बांधो,
तो सर्व चंचलता
सहज ही समाप्त
हो जायेंगी। और
कोई सम्बन्ध वा
प्राप्ति के साधन
दिखाई नहीं देंगे
तो वृत्ति जायेगी
कहाँ? अपने आप को
ऐसे बांधो जैसे
दृष्टान्त
प्रसिद्ध है कि
सीता को लकीर के
अन्दर बैठने का
फरमान था। ऐसे
अपने को हर कदम
उठाते हुए, हर संकल्प
करते हुए बाप के
फरमान की लकीर
के अन्दर समझो।
अगर संकल्प में
भी
फ़रमॉं के लकीर
से निकलते हो तब
व्यर्थ बातें वार
करती हैं। तो सदैव
फ़रमॉं
की लकीर के अन्दर
रहो तो सदा सेफ
रहेंगे। कोई भी
प्रकार के रावण
के संस्कार वार
नहीं करेंगे और
न ही समय-प्रति-समय
अपना समय इन्हीं
बातों में मिटाने
के लिए व्यर्थ
गंवायेंगे। न वार
होगा, न बार-बार
व्यर्थ समय जायेगा।
इसलिए अब
फ़रमॉं
को सदा याद रखो।
ऐसे फरमांबरदार
बनने के लिए ही
भट्ठी
में
आये हो ना। तो ऐसा
ही अभ्यास करके
जाना जो एक संकल्प
भी
फ़रमॉं के बिना
न हो। ऐसे फरमांबरदारी
का तिलक सदा स्मृति
में लगा रहे। यह
तिलक लगाना, फिर
देखेंगे -- फर्स्ट
नम्बर कौन आता
है, इस तिलक को धारण
करने में फर्स्ट
प्राइज लेने वाला
कौन होता है? अच्छा।