11-03-71 ओम
शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
परिस्थितियों
को पार करने का
साधन - ‘स्वस्थिति’
व्यक्त
में रहते
अव्यक्त
स्थिति
में रहने का अभ्यास
अभी सहज हो गया
है। जब जहाँ अपनी
बुद्धि को लगाना
चाहें तो लगा सकें
- इसी अभ्यास को
बढ़ाने के लिए अपने
घर में अथवा
भट्ठी
में
आते हो। तो
यहाँ
के थोड़े समय का
अनुभव सदाकाल बनाने
का प्रयत्न करना
है। जैसे यहाँ
भट्ठी
वा
मधुबन में चलते-फिरते
अपने को अव्यक्त
फरिश्ता
समझते हो, वैसे
कर्मक्षेत्र वा
सर्विस-भूमि
पर भी यह अभ्यास
अपने साथ ही रखना
है। एक बार का किया
हुआ अनुभव कहाँ
भी याद कर सकते
हैं। तो यहाँ का
अनुभव वहाँ भी
याद रखने से वा
यहाँ की स्थिति
में वहाँ भी स्थित
रहने से बुद्धि
को आदत पड़ जायेगी।
जैसे लौकिक जीवन
में न चाहते हुए
भी आदत अपनी तरफ
खींच लेती है, वैसे
ही अव्यक्त
स्थिति
में स्थित होने
की आदत बन जाने
के बाद
यह आदत स्वत:
ही अपनी तरफ खींचेगी।
इतना पुरूषार्थ
करते हुए कई ऐसी
आत्मायें हैं जो
अब भी यही कहती
हैं कि मेरी आदत
है। कमजोरी क्यों
है,
क्रोध क्यों
किया, कोमल क्यों
बने? कहेंगे - मेरी
आदत है। ऐसे जवाब
अभी भी देते हैं।
तो ऐसे ही यह स्थिति
वा इस अभ्यास की
भी आदत बन जाये;
तो फिर न चाहते
हुए भी यह अव्यक्त
स्थिति
की आदत अपनी तरफ
आकर्षित
करेगी।
यह आदत आपको अदालत
में जाने से बचायेगी।
समझा? जब बुरी-बुरी
आदतें अपना सकते
हो तो क्या यह आदत
नहीं डाल सकते
हो? दो-चार बारी
भी कोई बात प्रैक्टिकल
में लाई जाती है
तो प्रैक्टिकल
में लाने से प्रैक्टिस
हो जाती है। यहाँ
इस
भट्ठी
में अथवा
मधुबन में इस अभ्यास
को प्रैक्टिकल
में लाते हो ना।
जब यहाँ प्रैक्टिकल
में लाते हो और
प्रैक्टिस हो जाती
है तो वह प्रैक्टिस
की हुई चीज क्या
बन जानी चाहिए?
नेचूरल और नेचर
बन जानी चाहिए।
समझा? जैसे कहते
हैं ना - यह मेरी
नेचर है। तो यह
अभ्यास प्रैक्टिस
से नेचूरल और नेचर
बन जाना चाहिए।
यह स्थिति जब नेचर
बन जायेगी
फिर क्या होगा?
नेचूरल केलेमिटीज़
हो जायेगी।
आपकी नेचर न बनने
के कारण यह नेचूरल
केलेमिटीज़
रूकी
हुई हैं। क्योंकि
अगर सामना करने
वाले अपने स्व-स्थिति
से उन परिस्थितियों
को पार नहीं कर
सकेंगे तो फिर
वह परिस्थितियां
आयेंगी कैसे। सामना
करने वाले अभी
तैयार नहीं हैं,
इसलिए
यह पर्दा
खुलने में देरी
पड़ रही है। अभी
तक इन पुरानी आदतों
से, पुराने संस्कारों
से, पुरानी बातों
से, पुरानी दुनियॉं
से, पुरानी देह
के सम्बन्धियों
से वैराग्य नहीं
हुआ है। कहाँ भी
जाना होता है तो
जिन चीजों को छोड़ना
होता है उनसे पीठ
करनी होती है।
तो अभी पीठ करना
नहीं आता है। एक
तो पीठ नहीं करते
हो, दूसरा जो साधन
मिलता है उसकी
पीठ नहीं करते
हो। सीता और रावण
का खिलौना देखा
है ना। रावण के
तरफ सीता क्या
करती है? पीठ करती
है ना। अगर पीठ
कर दिया तो सहज
ही उनके आकर्षण
से बच जायेंगे।
लेकिन पीठ नहीं
करते हो। जैसे
श्मशान में जब
नज़दीक पहुंचते
हैं तो पैर इस तरफ
और मुँह उस तरफ
करते हैं ना। तो
यह भी पीठ करना
नहीं आता है। फिर
मुँह उस तरफ कर
लेते हैं, इसलिए
आकर्षण में कहाँ
फँस जाते हैं।
तो दोनों ही प्रकार
की पीठ करने नहीं
आती है। माया बहुत
आकर्षण करने के
रूप रचती है। इसलिए
न चाहते हुए भी
पीठ करने के बजाय
आकर्षण में आ जाते
हैं। उसी आकर्षण
में पुरूषार्थ
को भूल, आगे बढ़ने
को भूल रूक भी जाते
हैं; तो क्या होगा?
मंजिल पर पहुँचने
में देरी हो जायेगी।
कुमारों की
भट्ठी
है
ना। तो कुमारों
को यह खिलौना सामने
रखना चाहिए। माया
की तरफ मुँह कर
लेते हैं। माया
की तरफ मुँह करने
से जो परीक्षायें
माया की तरफ से
आती हैं, उनका सामना
नहीं कर सकते हैं।
अगर उस तरफ मुँह
न करो तो माया की
परिस्थितियों
को मुँह दे सको
अर्थात् सामना
कर सको। समझा?
कुमारों का सदा
प्योर और सतोगुणी
रहने का यादगार
कौनसा है, मालूम
है? सनंतकुमार।
उन्हों की विशेषता
क्या दिखाते हैं?
उन्हों को सदैव
छोटा कुमार
रूप ही
दिखाते हैं। कहते
हैं - उन्हों की
सदैव 5 वर्ष की आयु
रहती है। यह प्योरिटी
का गायन है। जैसे
5 वर्ष का छोटा बच्चा
बिल्कुल प्योर
रहता है ना। सम्बन्धों
के आकर्षण से दूर
रहता है। भल कितना
भी लौकिक परिवार
हो लेकिन स्थिति
ऐसी हो जैसे छोटा
बच्चा प्योर होता
है। वैसे ही प्योरिटी
का यह
यादगार है।
कुमार अर्थात्
पवित्र अवस्था।
उसमें भी सिर्फ
एक नहीं, संगठन
दिखलाया है। दृष्टान्त
में तो थोड़े ही
दिखाये जाते हैं।
तो यह आप लोगों
का संगठन प्योरीटी
का यादगार है।
ऐसी प्योरिटी होती
है जिसमें अपवित्रता
का संकल्प वा अनुभव
ही नहीं हो। ऐसी
स्थिति यादगार
समान बनाकर जानी
है।
भट्ठी
में इसीलिए
आये हो ना। बिल्कुल
इस दुनिया की बातों
से, सम्बन्ध से
न्यारे बनेंगे
तब दैवी परिवार
के, बापदादा के
और सारी दुनिया
के प्यारे बनेंगे।
वैसे भी कोई सम्बन्धियों
से जब न्यारे हो
जाते हैं, लौकिक
रीति भी अलग हो
जाते हैं तो न्यारे
होने के बाद ज्यादा
प्यारे होते हैं।
और अगर उन्हों
के साथ रहते हैं
वा उन्हों के सम्बन्ध
के लगाव में होते
हैं तो इतने प्यारे
नहीं होते हैं।
वह हुआ लौकिक।
लेकिन यहाँ न्यारा
बनना है ज्ञान
सहित। सिर्फ बाहर
से न्यारा नहीं
बनना है। मन का
लगाव न हो। जितना-जितना
न्यारा बनेंगे
उतना- उतना प्यारा
अवश्य बनेंगे।
जब अपनी देह से
भी न्यारे हो जाते
हो तो वह न्यारेपन
की अवस्था अपने
आप को भी प्यारी
लगती है - ऐसा अनुभव
कब किया है? जब अपनी
न्यारेपन की अवस्था
अपने को भी प्यारी
लगती है, तो लगाव
से न्यारी अवस्था
प्यारी नहीं लगेगी?
जिस दिन देह में
लगाव होता है, न्यारापन
नहीं होता है तो
अपने आप को भी प्यारे
नहीं लगते हो, परेशान
होते हो। ऐसे ही
बाहर के लगाव से
अगर न्यारे नहीं
होते हैं तो प्यारे
बनने के बजाय परेशान
होते हैं। यह अनुभव
तो सभी को होगा।
सिर्फ ऐसे-ऐसे
अनुभव सदाकाल नहीं
बना सकते हो। ऐसा
कोई है जिसने इस
न्यारे और प्यारेपन
का अनुभव नहीं
किया हो? अपने को
योगी कहलाते हो।
जब अपने को सहज
राजयोगी कहलाते
हो तो यह अनुभव
नहीं किया हो, यह
हो नहीं सकता।
नहीं तो यह टाइटिल
अपने को दे नहीं
सकते हो। योगी
अर्थात् यह योग्यता
है तब
योगी हैं।
नहीं तो फिर अपने
परिचय में यह शब्द
नहीं कह सकते हो
कि हम सहज राजयोग
की पढ़ाई के स्टूडेन्ट
हैं। स्टूडेण्ट
तो हो ना। स्टूडेण्ट
को पढ़ाई का अनुभव
न हो, यह हो नहीं
सकता। हाँ, यह जरूर
है कि इस अनुभव
को कहाँ तक सदाकाल
बना सकते हो वा
अल्पकाल का अनुभव
करते हो। यह फर्क
हो सकता है। लेकन
जो पुराने स्टूडेन्टस्
हैं उन्हों का
अनुभव अल्पकाल
नहीं होना चाहिए।
अगर अब तक अल्पकाल
का ही अनुभव है
तो फिर क्या
होगा?
संगमयुग का वर्सा
और भविष्य का वर्सा
- दोनों ही अल्प
समय प्राप्त होगा।
समझा? जो पूरा समय
वर्सा प्राप्त
करने का है वह नहीं
कर सकेंगे, अल्प
समय करेंगे। तो
इसी में ही सन्तुष्ट
हो क्या?
आज कुमारों की
भट्ठी
का
आरम्भ है ना।
भट्ठी
का
आरम्भ अर्थात्
पकने का आरम्भ।
कोई स्वाहा होगा,
कोई
भट्ठी
में पकेगा,
कोई प्योरिटी का
संकल्प
दृढ़ करेगा।
यहाँ तो करने लिए
ही आये हो ना। अब
देखना है कि जो
कहा वह किया? यह
जो ग्रुप है वह
पूरा माया से इनोसेन्ट
और ज्ञान से सेन्ट
बनकर जाना। जैसे
सतयुगी आत्मायें
जब यहाँ आती हैं
तो विकारों की
बातों की
नॉलेज
से इनोसेन्ट
होती हैं। देखा
है ना। अपना याद
आता है कि जब हम
आत्मायें सतयुग
में थीं तो क्या
थीं? माया की
नॉलेज
से इनोसेन्ट
थीं - याद आता है?
अपने वह संस्कार
स्मृति में आते
हैं वा सुना हुआ
है इसलिए समझते
हो? जैसे अपने इस
जन्म में बचपन
की बातें स्पष्ट
स्मृति में आती
हैं, वैसे ही जो
कल के आपके संस्कार
थे वह कल के संस्कार
आज के जीवन में
संस्कारों के समान
स्पष्ट स्मृति
में आते हैं वा
स्मृति में लाना
पड़ता है? जो समझते
हैं कि हमारे सतयुगी
संस्कार ऐसे ही
मुझे स्पष्ट स्मृति
में आते हैं जैसे
इस जीवन के बचपन
के संस्कार स्पष्ट
स्मृति में आते
हैं, वह हाथ उठाओ।
यह स्पष्ट स्मृति
में आना चाहिए।
साकार रूप में
(ब्रह्मा बाप में)
स्पष्ट स्मृति
में थे ना। यह स्मृति
तब होगी जब अपने
आत्मिक-स्वरूप
की स्मृति स्पष्ट
और सदाकाल रहेगी।
तो फिर यह स्मृति
भी स्पष्ट और सदाकाल
रहेगी। अभी आत्मिक-स्थिति
की स्मृति कब-कब
देह के पर्दे के
अन्दर छिप जाती
है। इसलिए यह स्मृति
भी पर्दे के अन्दर
दिखाई देती है,
स्पष्ट नहीं दिखाई
देती है। आत्मिक-स्मृति
स्पष्ट और बहुत
समय रहने से अपना
भविष्य वर्सा अथवा
अपने भविष्य के
संस्कार स्वरूप
में सामने आयेंगे।
आपने चित्र में
क्या दिखाया है?
एक तरफ विकार भागते,
दूसरी तरफ बुद्धि
की स्मृति बाप
और भविष्य प्राप्ति
की तरफ। यह लक्ष्मी-नारायण
का चित्र दिखाया
है ना। यह चित्र
किसके लिए बनाया
है? दूसरों के लिए
या अपनी स्थिति
के लिए? तो भविष्य
संस्कारों को स्पष्ट
स्मृति में लाने
के लिए आत्मिक-स्वरूप
की स्मृति सदाकाल
और स्पष्ट रहे।
जैसे यह देह स्पष्ट
दिखाई देती है,
वैसे अपनी आत्मा
का
स्वरूप स्पष्ट
दिखाई दे अर्थात्
अनुभव में आये।
तो अब कुमारों
को क्या करना है?
सेन्ट भी बनना
है, इनोसेन्ट भी
बनना है। सहज पढ़ाई
है ना। दो शब्द
में आपका पूरा
कोर्स हो जायेगा।
यह छाप लगाकर जाना।
कमज़ोरी, परेशानी
आदि -- इन बातों से
बिल्कुल इनोसेन्ट।
कमजोरी शब्द भी
समाप्त होना है।
इस ग्रुप का नाम
कौनसा है? सिम्पलिसिटी
और प्योरिटी में
रहने वाला ग्रुप।
जो सिम्पल होता
है वही ब्युटीफुल
होता है। सिम्पलिसिटी
सिर्फ ड्रेस की
नहीं लेकिन सभी
बातों की। निरहंकारी
बनना अर्थात् सिम्पल
बनना। निरक्रोधी
अर्थात् सिम्पूल।
निर्लोभी अर्थात्
सिम्पुल। यह सिम्पलिसिटी
प्योरिटी का साधन
है। अच्छा। सलोगन
क्या याद रखेंगे?
कुमार जो चाहे
सो कर सकते हैं।
जो भी बातें कहो
वह ‘‘पहले करेंगे,
दिखायेंगे, फिर
कहेंगे’’। पहले
कहेंगे नहीं। पहले
करेंगे, दिखायेंगे,
फिर कहेंगे। यह
सलोगन याद रखना।
अच्छा।